मैं बचपन ‘नादान’, अस्तित्व की लड़ाई में जूझता हुआ,
क्या हूँ मैं, किसका हूँ मैं, सवालों का जवाब ढूंढता हुआ,
याद करता हूँ कभी,बातें जो बीत चुकी हैं कल,
मौज-मस्ती के वे सारे दिन,खुशियों वाला हर एक पल.
नदी किनारे थे मछलियाँ पकड़ते, और बहाते कागज की नाव,
पेड़ों से कभी इमली तोड़कर, खाते थे बैठ पीपल की छांव.
छोटी चीजों की वो जिद, जिस पर डांट बरसता था,
पूरी हो जाने पर जिसके, मैं ‘बचपन’ तो हँसता था.
परेशान हमारी शरारतों से तब कोई न क्रोधित होता था,
प्यारा हूँ मैं, दुलारा हूँ मैं, बस यही तो बोधित होता था.
खेल-खेल में भी होती थी, दोस्तों संग अक्सर तकरार,
पैर फँसाना, जमीं पर गिराना,पर बढ़ता जाता था प्यार.
नए दौर की फिर बयार आई,सब कुछ गया बदल,
बचपन की काया पलटी,आँखें भई सज़ल.
माँ-बाप के अरमानों ने छेड़ी नई है तान,
हमारे बच्चे आगे होंगे,बनेगे अपनी शान.
सारे बच्चों में देखिये, लग गयी है होड़,
जीतने की ख्वाहिश बस है,चाहें हो तोड़-मरोड़.
पर हम ‘बच्चे’ दौड़ में कच्चे रह गए हैं पीछे,
बैठे रहते सदा क्लास में, अपनी आँखें भींचें.
कोई सुनता नहीं हमारी, कहते हैं ‘गदहा’ हो,
आत्मविश्वास गिर गया है अपना,कैसे अब भला हो.
इतना ही नहीं,
मेरे मार्क्स अब मेरी पहचान हो गए हैं,
माँ की ममता, पिता के दुलार की जान हो गए हैं,
पर्सनली अब मुझको, कोई पूछता नहीं है,
क्योंकि ‘बच्चे’ वाली मेरी पहचान कुर्बान हो गए हैं.
बंध गई है सोच मेरी घर की चारदीवारियों में,
क़तर दिए हैं पंख मेरे, स्कूल की क्यारियों ने,
दोस्तों की सर्किल अब छोटी हो गई है,
क्योंकि कॉपी और किताबें अब मोटी हो गई हैं.
इसीलिए तो दोस्तों से दूरी हो गई है,
टीवी और मोबाइल मजबूरी हो गई है.
आधुनिकता की इस दुनियां में,पर घुटता जाता हूँ मैं,
‘अकेलेपन’ की भीड़ में खुद को खोता जाता हूँ मैं,
खो गए हैं रिश्ते-नाते, खो गए हैं हँसी मज़ाक,
जल्दी ही इतिहास बनेगी,देखो अपना बचपन बेबाक.
बचपन की गुज़ारिश…
इससे पहले ऐसा हो जाए,रखता हूँ मैं अपनी बात,
जिन सबसे यह संभव हो,दे देना मेरा तुम साथ.
मुझे भी पसंद है, नई चीजें – सीखना और सिखाना,
मगर नहीं चाहूँ इन्हें ,बिना समझे रटते जाना,
कर सकता हूँ मैं भी सबकुछ , पूरे अपने सब अरमान,
अगर हट जाए मुझ पर से ये बोझ इम्तिहान.
आज़ादी मिल जाए मुझको, करने को वही,
जो मुझे लगता है कि मैं कर सकता हूँ सही.
मार्गदर्शक बन जाओ मेरे, विशेषतायें मेरी पहचान,
तभी जाकर पूर्ण होगा, मुझ बच्चों का विशिष्ट निर्माण.
मेरी सृजनशीलता तब गुलज़ार हो जाएगी,
मन में खुशियाँ और आनंद की बहार आ पाएगी.
सारे सपने होंगे अपने, माँ-बाप के हम बनेंगे शान,
समाज हमारा उन्नत होगा, देश बढ़ेगा सीना तान.